आत्मानात्मविवेक:
Atma-Anaatma Vivek
The Wisdom of Eternal and Non-Eternal
दृश्यं यर्वमनात्मा स्यात् दृगेवात्मा विवेकिन:।
आत्मानात्मविवेकोऽयं कथितो ग्रन्थकोटिभि: ।।१ ।।
संसार के संपूर्ण पदार्थ दो प्रकार के हैं - आत्मपदार्थ व अनात्मपदार्थ। परंतु हैं क्या ये आत्म पदार्थ और अनात्म पदार्थ?
जो सदैव बना रहे और कभी उसके स्वरूप में विकृति न आए, ऐसे पदार्थ को आत्म-पदार्थ कहते हैं। और सदैव का मतलब हमेशा, सृष्टि के अनंत काल तक। आगे जानेंगे कि ऐसा तो एक ही पदार्थ है, परमेश्वर। बाकि तो कोई पदार्थ सदैव रहने वाला नहीं है, सो वो अनित्य है और अनात्म - पदार्थ है।
इस संसार को कौन चला रहा है? ईश्वर? नहीं, धर्म। ईश्वर सदैव द्रष्टा भाव में रहते हैं। कर्ता भाव में तो कभी कभी ही आते हैं। इस संपूर्ण सृष्टि को धर्म धारण किए हुए है। आपके सत्कर्मों का सुफल और कुकर्मों का कुफल आपको धर्मानुसार ही प्राप्त होता है। संसार धर्मानुसार चल रहा है, ईश्वर उसके निरपेक्ष द्रष्टा हैं। सृष्टि को द्रष्टा भाव से देखने वाले परब्रह्म परमेश्वर ही आत्मपदार्थ हैं।
तो आद्य शंकराचार्य महाभाग ने इस छोटे से ग्रंथ को क्यों लिखा? क्या प्रयोजन है उसका? आत्म-अनात्म विवेक विकसीत होने से आपका क्या भला होगा?
तो इन प्रश्नों के लिए इस ग्रंथ ने ये प्रश्न किया कि मनुष्य के कष्ट का क्या कारण है?
जवाब आया कि शरीर धारण ही कष्ट का कारण है। जैसे आपके हाथ न हों तो हाथों में दर्द होगा क्या? नहीं न। परंतु सारे कष्ट हाथों में ही तो नहीं होते। शरीर से आठ प्रकार के ज्ञान होते हैं - १. रूप, २. रस, ३. गंध, ४. शब्द, ५. स्पर्श, ६. सुख, ७. दुख, ८. मोह। तो भौतिक शरीर के तो पांच ही ज्ञानेंद्रिय हैं, बाकि तीन का क्या? तो उसका उत्तर यह है कि वेदांत मत में शरीर के तीन आवरण हैं - १. स्थूल शरीर, २. सूक्ष्म शरीर - इसमें होते हैं - पंच कर्मेंद्रियां, पंच ज्ञानेंद्रिया, पंच तन्मात्राएं, आत्मा और मन। तीसरा होता है - कारण शरीर। अज्ञान को ही कारण शरीर कहते हैं, परंतु क्यों, वह आगे देखेंगे।
अब प्रश्न ये है कि शरीर क्यों धारण करना पड़ता है? इसका उत्तर यह ग्रंथ यह देता है कि पूर्व जन्मों के किए हुए कर्मों के फल को भोगने के लिए ही शरीर धारण करना पड़ता है। ऐसे कर्म जिनका फल भोगना शेष रह गया है। इस संदर्भ में ही कर्म के तीन भेद बताए गए - पुण्य कर्म, पाप कर्म और मिश्र कर्म। पुण्य कर्मों के फल देवादि योनि प्राप्त कराते हैं, तो पाप कर्म कीटादि योनि। मिश्र कर्मों से मनुष्य योनि प्राप्त होता है।
